परमेश्वर के दैनिक वचन "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" (अंश 11)
"सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, ""जब परमेश्वर देहधारी हुआ और मानव जाति के बीच रहने लगा, तो उसने अपनी देह में किस प्रकार के दुख का अनुभव किया? क्या कोई सचमुच में समझ सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर ने बड़ा दुःख सहा, और यद्यपि वह स्वयं परमेश्वर है, लोगों ने उसके सार को नहीं समझा और हमेशा उसके साथ एक मनुष्य के समान व्यवहार किया, जिस से वह दुखित और चोटिल महसूस करता है—वे कहते हैं कि परमेश्वर का दुःख भोग सचमुच बहुत बड़ा था। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि परमेश्वर निर्दोष और निष्पाप है, परन्तु उसने मनुष्य के समान दुःख उठाया और मनुष्य के साथ साथ सताव, निंदा, और अपमान सहता है; वे कहते हैं कि वह अपने अनुयायियों की ग़लतफहमियों और अनाज्ञाकारिता को भी सहता है—परमेश्वर के दुःख भोग को सचमुच में नापा नहीं जा सकता है। ऐसा दिखाई देता है कि तुम लोग सचमुच में परमेश्वर को नहीं समझते हो। वास्तव में, वह दुःख जिसके बारे में तुम बात करते हो उसे परमेश्वर के लिए सच्चे दुःख के रूप में नहीं लिया जाता है, क्योंकि एक ऐसा दुःख है जो इससे कहीं बढ़कर है। तो स्वयं परमेश्वर के लिए सच्चा दुःख भोग क्या है? परमेश्वर के देहधारी देह के लिए सच्चा दुःख भोग क्या है? परमेश्वर के लिए, मानवजाति का उसे नहीं समझना दुःख भोग के रूप में नहीं लिया जाता है, और लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ ग़लतफहमियाँ होना और उसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखना दुःख भोग के रूप में नहीं लिया जाता है। हालाँकि, लोग अक्सर महसूस करते हैं कि परमेश्वर ने जरूर एक बहुत बड़ा अन्याय सहा होगा, यह कि जिस समय परमेश्वर देह में है वह अपने व्यक्तित्व को मानवजाति को नहीं दिखा सकता है और उन्हें अपनी महानता को देखने की अनुमति नहीं दे सकता है, और परमेश्वर विनम्रता से एक मामूली देह में छिपा हुआ है, इसलिए यह उसके लिए जरूर कष्टदायी रहा होगा। लोग जो कुछ परमेश्वर के दुःख भोग के बारे में समझ सकते हैं और जो कुछ देख सकते हैं उसे दिल से लगा लेते हैं, और परमेश्वर पर हर प्रकार की सहानुभूति अधिरोपित करते हैं और अक्सर यहाँ तक कि उसके लिए एक छोटी सी स्तुति भी प्रस्तुत करते हैं। वास्तविकता में, यहाँ एक अन्तर है, लोग परमेश्वर के दुःख भोग के बारे में जो कुछ समझते हैं और वह सचमुच में जो महसूस करता है उसके बीच एक अंतराल है। मैं तुम लोगों से सच कहता हूँ—परमेश्वर के लिए, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह परमेश्वर का आत्मा है या परमेश्वर का देहधारी देह, वह दुःख वास्तविक दुःख नहीं है। तो यह क्या है कि परमेश्वर ने सचमुच में दुःख उठाया? आओ हम केवल परमेश्वर के देहधारण के दृष्टिकोण से परमेश्वर के पीड़ा के बारे में बात करें।
जब परमेश्वर देहधारी हो गया, वह एक औसत, सामान्य व्यक्ति बन गया, और मानव जाति के मध्य और लोगों के आसपास रहने लगा, तो क्या वह लोगों के जीने के तरीकों, व्यवस्थाओं, और दर्शन शास्त्र को देख नहीं सकता था और उन्हें महसूस नहीं कर सकता था? जीने के इन तरीकों और व्यवस्थाओं से उसे कैसा महसूस होता है? क्या वह अपने हृदय में घृणा का एहसास करता था? वह क्यों घृणा का एहसास करेगा? जीने के लिए मानव जाति के क्या तरीके और नियम थे? वे किन सिद्धांतों में जड़ पकड़े हुए थे? वे किस पर आधारित थे? मानव जाति के तरीकों, नियमों इत्यादि पर। जीने के लिए—यह सब कुछ शैतान की तर्कशक्ति, ज्ञान, और दर्शन शास्त्र पर सृजा गया है। मनुष्य जो इस प्रकार के नियमों के अधीन जीते हैं उनके पास कोई मानवता नहीं है, और कोई सच्चाई भी नहीं है—वे सभी सत्य को दूषित करते हैं, और परमेश्वर के बैरी हैं। यदि हम परमेश्वर के सार पर एक नज़र डालें, हम देखेंगे कि उसका सार बिल्कुल शैतान की तर्कशक्ति, ज्ञान, और दर्शन शास्त्र के विपरीत है। उसका सार धार्मिकता, सत्य, और पवित्रता, और सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकताओं से भरा हुआ है। परमेश्वर जो इस सार को धारण किए हुए है और एक ऐसी मानव जाति के मध्य रहता है—वह अपने हृदय में क्या सोचता है? क्या वह दर्द से भरा हुआ नहीं है? उसका हृदय तकलीफ में है, और यह दर्द कुछ ऐसा है जिसे कोई इंसान समझ या महसूस नहीं कर सकता है। क्योंकि सब कुछ जिस का वह सामना करता है, मुकाबला करता है, तथा देखता, सुनता, और अनुभव करता है वह सब कुछ मानव जाति की भ्रष्टता, बुराई, और सत्य के विरोध और अवरोध में उनका विद्रोह है। जो कुछ मनुष्यों से आता है वह उसके दुःख भोग का स्रोत है। ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि उसका सार भ्रष्ट मनुष्यों के समान नहीं है, किन्तु मनुष्यों की भ्रष्टता उसके सब से बड़े दुःख भोग का स्रोत बन गया है। जब परमेश्वर देहधारी हो जाता है, क्या वह किसी को ढूँढ़ सकता है जो उसके साथ एक सामान्य भाषा में बात कर सकता है? इसे मानव जाति में पाया नहीं जा सकता है। किसी को भी ढूँढ़ा नहीं जा सकता है जो परमेश्वर के साथ बातचीत कर सके, इस प्रकार विचारों का अदान प्रदान कर सके—तो तुम क्या कहोगे कि परमेश्वर को कैसा लगता है? वे चीज़ें जिन के विषय में लोग आपस में बातचीत करते हैं, वे उनसे प्रेम करते हैं, यह कि वे जिन के पीछे भागते हैं और जिन्हें पाना चाहते हैं वे सभी पाप से, और बुरी प्रवृतियों से जुडे़ हुए हैं। परमेश्वर इन सब का सामना करता है, क्या यह उसके हृदय में एक कटार के समान नहीं है? इन चीज़ों का सामना करके, क्या उसके हृदय में आनन्द हो सकता है? क्या वह सान्त्वना पा सकता है? वे जो उसके साथ रह रहें हैं वे ऐसे मनुष्य हैं जो उपद्रव और बुराई से भरे हुए हैं—तो उसका दिल क्यों नहीं दुखेगा? यह दुःख भोग वास्तव में कितना बड़ा है, और कौन इस की परवाह करता है? कौन ध्यान देता है? और कौन इस की तारीफ कर सकता है? लोगों के पास परमेश्वर के हृदय को समझने का कोई तरीका नहीं है? उसका दुःख भोग कुछ ऐसा है जिस की तारीफ लोग विशेष रूप से नहीं कर सकते हैं, और मानवता की उदासीनता और चेतनाशून्यता ने परमेश्वर के दुःख भोग को और अधिक गहरा कर दिया है।
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मसीह की दुर्दशा से अक्सर सहानुभूति दिखाते हैं क्योंकि बाइबल में एक वचन है जो कहता हैः ""लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।"" जब लोग इसे सुनते हैं, तो वे इसे दिल में ले लेते हैं और विश्वास करते हैं कि यह सब से बड़ा दुःख भोग है जिसे परमेश्वर ने सहा, और सब से बड़ा दुःख भोग है जिसे मसीह ने सहा। अब, प्रमाणित तथ्यों के दृष्टिकोण से इसे देखने से, क्या मामला ऐसा ही है?परमेश्वर यह विश्वास नहीं करता है कि ये कठिनाईयाँ कष्टकारी हैं। उसने कभी देह की कठिनाईयों के लिए अन्याय के विरूद्ध आवाज़ नहीं उठाई है, और उसने कभी भी मनुष्यों से उनका बदला या उनसे अपने लिए किसी चीज़ का प्रतिफल नहीं लिया है। फिर भी, जब वह मनुष्य जाति की हर चीज़ को देख लेता है, उसके भ्रष्ट जीवन और भ्रष्ट मनुष्यों की बुराई को, और जब वह यह देखता है कि मानव जाति शैतान की चंगुल में है और शैतान के द्वारा कैद है और बचकर निकल नहीं सकते हैं, तो पाप में रहने वाले नहीं जानते हैं कि सच्चाई क्या है—वह इन सब पापों को सहन नहीं कर सकता है। मानव जाति के प्रति उसकी घृणा दिन ब दिन बढ़ती जा रही है, परन्तु उसे इन सब को सहना ही है। यह परमेश्वर का सब से बड़ा दुःख भोग है। यहाँ तक कि परमेश्वर अपने अनुयायियों के बीच खुलकर अपने हृदय की आवाज़ या अपनी भावनाओं को व्यक्त भी नहीं कर सकता है, और उसके अनुयायियों में से कोई भी उसके दुःख दर्द को समझ नहीं पा रहा है। कोई भी उसके हृदय को समझने या दिलासा देने की कोशिश नहीं कर रहा है—उसका हृदय दिन ब दिन, साल दर साल, और बार बार इस दुःख दर्द को सहता रहता है। तुम इन सब में क्या देखते हो? परमेश्वर ने जो कुछ दिया है उस के बदले में वह मनुष्यों से कुछ भी नहीं माँगता है, परन्तु परमेश्वर के सार के कारण, वह बिल्कुल भी मानव जाति की बुराई, भ्रष्टता, और पाप को सहन नहीं कर सकता है, परन्तु वह बहुत ही ज़्यादा घृणा और नफरत का एहसास करता है, जो परमेश्वर के हृदय और उसकी देह को कभी ना खत्म होने वाले दुःख दर्द की ओर धकेल देता है। क्या तुम यह सब कुछ देख सकते हैं? ज़्यादा संभावना है, कि तुममें से कोई इसे देख नहीं सकता है, क्योंकि तुममें से कोई भी सचमुच में परमेश्वर को नहीं समझता है। समय के अन्तराल के साथ धीर-धीरे तुम इसे अपने आप में समझ सकते हो।""
— ""परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III"" से उद्धृत"
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